जो प्रतीत्यसमुत्पाद को समझता है वह धम्म को समझता है !



"प्रतीत्यसमुत्पाद बौद्ध धर्म का मूल "


  • तथागत कहतें है , कि जो प्रतीत्यसमुत्पाद को समझता है वह धम्म को समझता है जो धम्म को जानता है वह प्रतीत्यसमुत्पाद को जानता है।
  • प्रतीत्यसमुत्पाद = सद्धर्म, तथागत को सम्बोधि की रात्रि के प्रथम याम में पूर्वजन्मों की स्मृति प्राप्त हुई ,द्वितीय याम में दिव्य दृष्टि मिली और तृतीय याम में प्रतीत्यसमुत्पाद का ज्ञान हुआ।
  • तथागत अब सम्यक् सम्बुद्ध हो गए और अश्वत्थ बोधि वृक्ष, गया बौद्ध-गया हो गया, जहाँ हिंदू आज भी अपने पुरखों को तारने जाते हैं।
  • प्रतीत्यसमुत्पाद :  प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धांत कहता है कि कोई भी घटना केवल दूसरी घटनाओं के कारण ही एक जटिल कारण-परिणाम के जाल में विद्यमान होती है।प्राणियों के लियेइसका अर्थ है कर्म और विपाक(कर्म के परिणाम) के अनुसार अनंत संसार का चक्र होता है|कुछ भी सच में विद्यमान नहीं है,हर घटना मूलतः शुन्य होती है।
     प्रतीत्य समुत्पाद’ अथवा पतीच्च समुप्पाद’ बौद्ध दर्शन से लिया गया शब्द है . इसका शाब्दिक अर्थ है – एक ही मूल से जन्मी दो अवियोज्य/इनसेपरेबल चीज़ें – यानी एक को चुनने के बाद आप दूसरी को न चुनने के लिए स्वतंत्र नहीं रह जाते . यानी एक को चुनने की अनिवार्य परिणति है दूसरी को चुनना .प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धांत कहता है कि कोई भी घटना केवल दूसरी घटनाओं के कारण ही एक जटिल कारण-परिणाम के जाल में विद्यमान होती है । प्राणियों के लिये इसका अर्थ है – कर्म और विपाक (कर्म के परिणाम) के अनुसार अनंत संसार का चक्र । क्योंकि सब कुछ अनित्य और अनात्म (बिना आत्मा के) होता हैकुछ भी सच में विद्यमान नहीं है । हर घटना मूलतः शून्य होती है । परंतुमानवजिनके पास ज्ञान की शक्ति हैतृष्णा कोजो दुःख का कारण हैत्यागकरतृष्णा में नष्ट की हुई शक्ति को ज्ञान और ध्यान में बदलकरनिर्वाण पा सकते है

    वेदना (सुख, दुःख, की भावना) के कारण तृष्णा (पाने की तीव्र इच्छा) उत्पन्न होती है , तृष्णा के कारण पर्येषण (=खोजना), पर्येषण के कारण लाभ, लाभ के कारण विनिश्चय (=दृढ़-विचार), विनिश्चय के कारण छंद-राग (=प्रयत्न्न की इच्छा), छंद-राग के कारण अध्यवसान (प्रयत्न्न); अध्यवसान के कारण परिग्रह (=जमा करना), परिग्रह के कारण मात्सर्य (=कंजूसी), मात्सर्य के कारण आरक्षा (=हिफाजत), आरक्षा के कारण ही दंड-ग्रहण, शास्त्र ग्रहण, विग्रह, विवाद, ‘तू’ ‘तू’ मैं-मैं (=तुवं, तुवं), चुगली, झूठ बोलना, अनेक पाप=बुराईयाँ (=अ=कुशल-धर्म) (धर्म=मन का विचार) होती हैं। नाम-रूप (संज्ञा-भौतिक अकार, विचार-अकार, विचार-पदार्थ, विचार-शरीर, विचार-आकृति) के कारण विज्ञान (चित, मन) है. विज्ञान के कारण नाम-रूप है। नाम-रूप के कारण स्पर्श है (आँखों से देखना, जिव्हा से चखना, नाक से सूंघना, कानों से सुनना भी ‘स्पर्श’ है क्योंकि ऐसे पदार्थ जैसे प्रकाश, ध्वनि तरंगों आदि का स्पर्श इन्द्रियों को होता है)। स्पर्श के कारण वेदना है। वेदना के कारण तृष्णा है। तृष्णा के कारण उपादान (आसक्ति, अनुराग, बंधन, व्यसन, एक तरह से तीव्र तृष्णा से चिपके रहना; उपादान (आसक्ति) चार प्रकार के हैं : 1. कामुपदान = एन्द्रिय, विषय, इन्द्रिय सम्बन्धी उपादान/आसक्ति/बंधन/तीव्र इच्छा/तृष्णा, 2. दित्थुपादान = वैचारिक उपादान, 3. शीलबातुपादान = नियम/विधि और अनुष्ठान/संस्कार में उपादान/आसक्ति, अट्टा-वादुपादान = व्यक्तित्व श्रद्धा / नायक-महिमा) में उपादान/आसक्ति/बंधन) है। उपादान के कारण भव (होना) है। भव के कारण जन्म (=जाति) है। जन्म के कारण जरा-मरण है। जरा-मरण के कारण शोक, परिवेदना (=रोना पीटना), दुःख, दौर्मनस्य (=मनःसंताप) उपायास (=परेशानी) होते हैं। इस प्रकार इस केवल (=सम्पूर्ण) -दुःख-पुंज (रूपी लोक) का समुदाय (= उत्पत्ति) होता है।  
  • प्रतीत्यसमुत्पाद सारे बुद्ध विचारों की रीढ़ है। बुद्ध पूर्णिमा की रात्रि में इसी के अनुलोम-प्रतिलोम अवगाहन से बुद्ध ने बुद्धत्व का अधिगत किया। प्रतीत्यसमुत्पाद का ज्ञान ही बोधि है। यही प्रज्ञाभूमि है। अनेक गुणों के विद्यमान होते हुए भी आचार्यों ने बड़ी श्रद्धा और भक्तिभाव से ऐसे भगवान बुद्ध का स्तवन किया हैजिन्होंने अनुपम और अनुत्तर प्रतीत्यसमुत्पाद की देशना की है। चार आर्यसत्यअनित्यतादु:खताअनात्मता क्षणभङ्गवादअनात्मवादअनीश्वरवाद आदि बौद्धों के प्रसिद्ध दार्शनिक सिद्धान्त इसी प्रतीत्यसमुत्पाद के प्रतिफलन हैं।
  • सब पदार्थ विच्छिन्न प्रवाह होने से नित्य हो ही नहीं सकते :- जो नित्य नहीं वह आत्म नहीं, सब अनित्य होने से ईश्वर भी नहीं हो सकता। देव भी अमर नहीं हो सकते।सब पदार्थ अनित्य होने से वियोग दु: ख से सदा युक्त रहते ही हैं।
  • भगवान के प्रतीत्यसमुत्पाद को न समझ पाने से ही सर राधाकृष्णन (शिक्षक दिवस वाला) जैसे ब्राह्मण उन्हें गुप्त आत्मवादी मान बैठे।
  • प्रतीत्यसमुत्पाद को न समझ पाने से ही दयानंद जैसे ब्राह्मण (जो बुद्ध और महावीर और बौद्धों और जैनों को भी एक समझता है) भगवान को दु: खवादी समझ बैठा।
  • भगवान ने तो कहा यत् अनिच्चं सो दुक्खं जो अनित्य है, वह दु: ख है। क्योंकि वियोग होना है ,यह शाश्वत दुक्ख है, इससे बचा नहीं जा सकता है। जब यह जान लोगे तो राग से बचोगे तृष्णा से बचोगे। यह जानना ज़रूरी है आँखे बंद कर लेने से कबूतर को बिल्ली छोड़ती नहीं हैंभले ही हिंदू शाक्यमुनि का नाम नहीं लेते परंतु बात-बात में कहते हैं कि "यह संसार क्षण भंगुर है" यही तो प्रतीत्यसमुत्पाद है यही तो बुद्ध का प्रभाव है जो लाख गाली निकालने पर भी हिंदुओं में रह गया।प्रभाव तो सारा गौतम का ही है यह अहिंसा, यह ध्यान समाधी, यह मुक्ति, यह राग द्वेष त्यागने की बातें, यह संतों का वर्णवाद का विरोध करना, यह पीपल पूजा, बोध गया में श्राद्ध, शिव की मूर्ति, यहाँ तक की हिंदुओं का सबसे बड़ा गुरु शंकराचार्य दर्शन परंपरा में प्रच्छन्न बौद्ध कहलाता है।भगवान ने कहा है प्रतीत्यसमुत्पाद का नियम निरपवाद है अनित्यता निरपवाद है इसे सब पदार्थों पर लगाया जाय ,ईश्वर आत्मा भी इससे नहीं बच सकते।
  • भगवान ने अंधकार में प्रकाश की खोज की। असत्यों में सत्य की खोज की। भगवान ने प्रथम बार सद्धर्म खोजा प्रथम बार मध्यम मार्ग खोजा।


"नमोः बुद्धाय "

Comments