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| मनुष्य स्वभाव से स्वतंत्र जन्म लेता है |
" शिक्षा " समानता ,स्वतंत्रता और न्याय के आधार पर विकशित हो !
- जीवन के उच्चतर मूल्यों का बौध है शिक्षा !
- ठीक से शिक्षित व्यक्ति ही धार्मिक हो सकता है !
- गहरे में हमारी शिक्षा का जीवन से कोई संपर्क नहीं है !
- आदमी नहीं जी सकता केवल रोटी के आधार पर !
- जीवन और आजीविका में बहुत भेद है
- मनुष्य के जीवन में क्यों है अर्थहीनता ?
- आंनद है 'व्यक्ति की पूर्णतया खिलावट "धर्म है " शिक्षा का आधार"

सतत विकास ही जीवन है
शिक्षा क्या है ?
- शिक्षा है जीवन के उच्चतर मूल्यों का बौध ,जीवन में बहुत तरह के मूल्य (gradation) है। जो निम्नतर मूल्यों पर जीवन में तर्प्त हो जाते है ,वो अशिक्षित है। उसे कोई संस्कार नहीं मिला कोई संस्कृति नहीं मिली। उसकी आंखे उपर नहीं उठी ,वो आकाश के तारों की तरफ आंखे नहीं उठा सका। जीवन में बहुत सी सीढियाँ है ,दूर आकाश तक या कहें परम आंनद (परमात्मा )तक सीढियाँ है। कौन किस सीढ़ी पर रुक जाता है ,सही मायने में वः उतना ही शिक्षित है शायद धन सबसे छोटी सीढ़ी है,और धर्म सीढ़ी का अंत है। लेकिन हम में से अधिकांश धन को लक्ष्य जान पहली सीढ़ी पर ही रुक जाते है। में न कह सकूंगा की वह लोग शिक्षित है।
हमारे जीवन में शायद 'शरीर' सबसे छोटा मूल्य है ,और चेतना (होश) सबसे बड़ा मूल्य है। लेकिन हम अधिकांश लोग शरीर पर ही जाते है ! इसीलिए में न कहे सकूंगा उनको शिक्षित ,क्योंकि वो हीरों को छोड़ कंकड़ पत्थर बीनने की भूल कर रहे है। कैसे हम कहे सकेंगे की वो ज्ञान उपलब्ध हो सके ,उनमे समझ पैदा हुई है ,कैसे हम कह सकेंगे कि उनमे अंतर्दृष्टि आयी है। ताकि वो आंनद को खोज सकें। जीवन है आंनद की खोज और आंनद उतना ही गेहरा होता चला जाता है जितने उच्चतर मूल्य पर हम उसे स्वीकार करते है। जितने निम्नतम मूल्य होते है, उतना ही जीवन आंनद से रिक्त रह जाता है। किसे हम शिक्षित कहें? मेरी नज़र में ठीक से शिक्षित व्यक्ति ही धार्मिक व्यक्ति है। क्योकि धर्म का कोई और अर्थ नहीं ,कोई और प्रयोजन नहीं है।

अन्धविश्वास की पराकष्ठा
- धर्म भी एक शिक्षा है ,जीवन में निरंतर जो श्रेष्ठतम है उसके खोज की ,जीवन में निरंतर जो गहरे से गहरा है, उसके अनुसन्धान की ,जीवन वहीँ समाप्त नहीं हो जाता जहाँ हमरी आँखे उसे देखती है। जीवन उससे बहुत ज्यादा गहरा है ,जीवन वहीँ समाप्त नहीं हो जाता जहाँ हमारे हाथ स्पर्श करते है। बहुत गहरा है जीवन उससे। लेकिन जिसे हम आज शिक्षा कहते है। जगत में वो हमें जीवन के उच्चतर मूल्यों की तरफ ले जाती मालूम नहीं होती, वो तो हमें जीवन के निम्नतम मूल्यों की और ले जाती प्रतीत होती है। और ऐसा दुर्भाग्ये मालूम होता है , कि वे दिन जबकि मनुष्यता अशिक्षित और असभ्य थी ,आज के दिनों से शायद ज्यादा गहरे और उच्चतर मूल्यों के दिन रहे होंगें। यह हैरानी की बात है ,कि शिक्षा बढ़ती हैं जगत में तो हमारे मुल्य ऊँचे से ऊँचे चले जाने चाहिए। लेकिन शिक्षा बढ़ गयी है ,हर तरफ हर आदमी एक न एक दिन शिक्षित हो जायेगा, एक दिन जमीन पर शायद ही कोई भी अशिक्षित व्यक्ति नहीं बचेगा। लेकिन हमारे जीवन के मुल्ये तो और निचे से निचे जा रहे है। कोई भूल होगी इस शिक्षा में ,कोई बुनियादी भूल होगी। शायद हम मनुष्य को इसीलिए व्यवस्थित नहीं कर पा रहे है ,पिछले सौ वर्षों में दो महायुद्ध हुए, क्या शिक्षित संसार को शर्म से नहीं भर जाना चाहिए ? आदमी की हत्या के इतने विराट आयोजन कौन कर रहा है ? आदमी के विनाश की इतनी व्यवस्था किसके चित से पैदा हो रही है ?
गहरे में हमारी शिक्षा का जीवन से कोई संपर्क नहीं है। अगर विश्व विद्यालय से शिक्षा पूरी होने के बाद
उस छात्र की घर्णा विलीन न होती हो ,और क्रोध का अंत ना होता हो ,वेमन्सव समाप्त ना होता हो ,ईर्ष्या अनंत ना पाती हो , तो छात्र पच्चीस वर्षों में वो क्या लेकर घर आ गया है। आजीविका कमाने के उपाए ,एक प्रमाण पत्र जो उसे नौकरी दे सकेगा। जिससे लिविंग मिल सकेगी ,आजीविका मिल सकेगी। लेकिन लाइफ और लिविंग में बुनियादी फर्क हैं ,जीवन और आजीविका में बहुत भेद है। रोटी कमा लेना जीवन का काफी आधार नहीं है ,अकेला मकान बना लेना ,या नौकरी कर लेना भी जीवन का प् लेना नहीं है ,जीवन कुछ उससे ज्यादा है। क्राइस्ट ने बहुत पहले कहा था "आदमी नहीं जी सकता केवल रोटी के आधार पर " लेकिन उससे उलट सारी दुनियाँ मात्र रोटी पर ही जी रही हैं। अकेली रोटी पर जो जी रहा है उसे किन शब्दों में हम मनुष्य कहें ? फिर पशु में ,पक्षी में,पौधों में और हममे भेद क्या है ? कुछ तो भेद होना चाहिए , वो भेद शायद ये ही हो सकता है। कि शरीर के पार मूल्य वो जो पार्थिव मूल्य( sunset value ) है ,वे ही नहीं कुछ जीवन में और गहरे मूल्य भी है ,और जो उन गहरे मूल्यों को उपलब्ध होता है ,वह ही केवल आन्नद को उपलब्ध होता है।
यह अस्वाभाविक नहीं है और न ही आश्चर्यजनक कि सारी दुनियाँ में एक अर्थहीनता ,एक मीनिंगलेसस्नेस मालूम पड़ती है। हर आदमी यह कहता हुआ मालूम पड़ता है कि जीवन में कोई अर्थनहीं दिखाई पड़ता , जीवन में अर्थ दिखाई कैसे पड़ेगा ? अर्थ पैदा करना होता है ,अर्थ आसमान से नहीं बरसता वर्षा की भांति ,और न ही नदी के किनारे पड़े हुए पत्थरों की तरह कहीं से उठा कर लाया जा सकता और ना अर्थ दुकान पर बाजार में बिकता है कि कोई उसे खरीद कर ला सके। अर्थ तो जीवन में सतत साधन से उत्पन करना होता है। आदमी खुद को पैदा करने की सतत प्रकिर्या हैं। जो लोग माँ -बाप से पैदा होने पर ही रुक जाते है वह ठीक से पैदा ही नहीं हो पाते ,पूरी जिन्दगी एक जन्म (बर्थ ) है ,रोज़ रोज़ आदमी जन्म लेता है ,रोज़ रोज़ उसे अपने भीतर नई नई दिशाओं को ,डाइमेंसन को जन्म देना होता है। और जिस दिन उसके भीतर सब खिल जाता है ,जैसे कोई कली फूल बन जाये ,ऐसा जब उसके जीवन के भीतर छिपा हुआ सब फूल की भांति खिल जाता है तब और केवल तभी उसे आंनद उपलब्ध होता है। आंनद है 'व्यक्ति की पूर्णतया खिलावट "
- आंनद मंदिरों में पूजा करने से नहीं मिलेगा ,और न आंनद धन के अम्बार लगा लेने से ,और न आंनद मिलेगा यश की सीढियाँ चढ़ते चले जाने से ,आंनद तो केवल तभी मिलता है जब किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व की कली फूल बन जाती है और जब उसकी सुगंध हवाएं उड़ा कर ले जाती है ,दूर अन्नत तक तभी उसके भीतर आंनद फलित होता है तभी जीवन का अर्थ ,मीनिंग और प्रयोजन समझ में आता है।
- हमें तो किसी को जीवन का कोई प्रयोजन समझ नहीं आता,बस जिये जाते है अर्थ हिन् ,उठ जाते है रोज़ ,चले जाते ,काम किये जाते है ,और सो जाते है। और ऐसे ही उठे चलते चलते एक दिन अंतिम क्षण आ जाता है। और हम दुनिया से विदा हो जाते है रोज़ हम देखते है किसी को विदा होते ,और रोज़ हम जानते है कि जो आदमी विदा हो गया है उसने अपने जीवन में कुछ भी नहीं पाया, खली हाथ गया है। क्या किसी के विदा होने पर क्या ख्याल में आता है ,कि क्या आपके हाथ भरे हुए हो सकेंगे ? या कि आपको भी खाली हाथ विदा हो जाना पड़ेगा ? जो खाली हाथ विदा होता है उसकी पूरी जिंदगी खालीपन की एक कथा होगी। जिंदगी का अंत पूरी जिंदगी की समाप्ति है। मौत ख़बर देती है कि यह आदमी कैसे जिया ,कैसे रहा,कुछ पाया इसने,कुछ उपलब्ध किया और इसीलिए आदमी को मौत से डरा हुआ देखते है। क्योंकि मौत सारे खालीपन को उघाड़ कर सामने कर देती है ,और इसीलिए तो हम हर आदमी को मौत के वक्त पीड़ा और परेशानी से भरा देखते है। क्योंकि वो पाता है ,कि जीवन चूक गया हाथ से और में खाली हाथ हूँ ,मेरी दौड़ विफल हो गई। नहीं लेकिन जमीन पर कुछ लोग ऐसे भी मरे है,जिनके हाथ खाली नहीं थे। जिनकी मत्यु भी एक आंनद थी ,क्योंकि उन्होंने जीवन के अवशर से खूब फसल काटी थी ,उन्होंने जीवन के अवशर से एक ऐसी सम्पदा इखट्ठी कर ली थी जिसे मौत भी छीन न सकी ,उन्होंने भीतर कुछ उपलब्ध कर लिया था ,वः भीतर किसी चीज से भर गए थे। किसी आन्नद से। किसी अर्थ से ,किसी अभिप्राय से ,किसी सौंदर्य से ,किसी संगीत से उनका परिचय हो गया था। इसीलिए मौत भी उनकी एक नई यात्रा के लिए पुरानी यात्रा का अंत नहीं ,इसीलिए उनकी मौत भी जीवन की इखट्ठी सम्पदा का अनुभव थी ,मौत भी उनके लिए आन्नद थी।
यह शिक्षा अधूरी है ,यह शिक्षा बेबुनियाद है ,यह शिक्षा बहुत आधारहीन है। धर्म ही जीवन को बुनियाददेता है ,लेकिन धर्म शब्द में भूल में मत पड़ जाना ,धर्म को ईसाई , हिन्दू मुस्लमान और बौद्ध न समझाना ,इनमे से कोई भी धर्म नहीं है ,धर्म तो एक ही हो सकता है बहुत नहीं हो सकते। क्या हिन्दू की गणित अलग ,मुसलमान की गणित अलग हो सकती है। ईसाई की रसायन अलग और यहूदी की रसायन अलग हो सकती है। जानते है हम नहीं हो सकती है। प्रकर्ति के नियम तो यूनिवर्सल है ,एक जैसे है। हिन्दू और मुसलमान में वह फर्क नहीं करते , तो जो प्रकर्ति के नियम एक जैसे है तो परमात्मा के नियम अलग अलग कैसे हो सकते है। जब पदार्थ भी एक ही सार्वलौकिक नियम के अंतर्गत चलता है ,तो क्या प्राण अलग -अलग नियमों के अंतर्गत गतिमान होंगे ? नहीं विज्ञान भी एक है ,और धर्म भी लेकिन धर्म के नाम पर बहुत सी दुकाने बन गई है। और वह सब अलग -अलग है ,और उन दुकानों ने आदमी का बहुत शोषण किया है और इन दुकानों के कारण ही शिक्षा धर्म से वंचित है क्योकि जब भी धर्म का सवाल उठता है तो हिन्दू सोचता है कि हिन्दू धर्म शिक्षा से जोड़ लिया जाये गीता पढाई जाये ,वेद पढ़ाये जाएं। मुसलमान सोचता है कुरान जोड़ दी जाये ,ईसाई सोचता है कि बाइबिल जोड़ दी जाये।

परस्पर सहयोग जीवन का आधार
- जब भी शिक्षा को धर्म से जोड़ने की बात आती है तो सभी तथाकथित धर्म अपने अपने पंथ को जोड़ने में जुट जाते है। वह चाहते है हमारी परम्पराएं ,हमारे रीतिरिवाज़ जुड़ जाएँ ,हमारी श्रद्धाएं ,हमारे विशवाश ,हमारी बिलीफ जोड़ दिए जाएँ और यह सारी श्रद्धाएं ,विशवास इतने अंधे है कि शिक्षा शास्त्री सोचता है इनको न ही जोड़ना बेहतर है ,इनसे मनुष्य के जीवन में कोई विकास सम्भव नहीं है।
धर्म का अर्थ किसी सम्पदाय से नहीं ,किसी धर्म ग्रन्थ से नहीं धर्म का अर्थ बस मात्र इतना है कि जीवन में उच्चतर मूल्यों के जन्म की प्रक्रिया से है। कैसे मनुष्य के भीतर उच्चतर मूल्यों का जन्म हो सकता है

मनुष्य के जीवन में धर्म और विज्ञानं का समन्वय
? कैसे मनुष्य अपने भीतर छिपी चेतना से परिचित हो सकता है ? कैसे मनुष्य अपने बहार जो विराट जीवन विस्तीर्ण है उसका सानिध्य अनुभव कर सकता है ? कैसे वो ये एक दिन इस सत्य की घोषणा कर सकता है ,कि वो केवल मिटटी और पदार्थ से ही नहीं बना , बल्कि उसमे चेतना भी व्याप्त है। इसकी खोज इसकी मान्यता नहीं ,इसका विश्वास नहीं ,इसको चुपचाप मान लेना नहीं बल्कि इसकी खोज इसकी अनुसंधान हैं। लेकिन तथाकथित धर्म तो कहते है विश्वास करो ,उनके विशवास करने की शिक्षा के कारण ही शिक्षक ,शिक्षार्थी और शिक्षाजगत का आज तक धर्म से सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाया है। क्योंकि शिक्षा के सारे आधार विचार पर खड़े है और धर्म के सारे आधार विशवास पर टिके है। यह दोनोंबाटे विरोधी है ,धर्म अंधे विशवास पर खड़ा है और शिक्षा की आधुनिक सरचना विचार पर खड़ी हुई है। जब तक हम धर्म को विशवास से जोड़ेंगे तब तक शिक्षा का सम्बन्ध धर्म से नहीं हो सकता। यह दोनों परस्पर विरोधी रहेंगे। और इसीलिए शिक्षा और धर्म का आज तक मैल नहीं हो सका। लेकिन मेरी दर्ष्टि में धर्म भी अंद्ध श्रद्धा नहीं है ,धर्म भी जागृख विचार है ,अगर धर्म एक जागृख विचार है तो धर्म स्वंम एक विज्ञानं है। सुप्रीम साइंस क्योकि सारे विज्ञानं जो बहार है उसकी खोज करते है। धर्म उसकी खोज करता है जो भीतर अदृश्य है।

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