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| तथागत गौतम बुद्ध दार्शनिक नहीं दृष्टा है |
"सम्यक दृष्टि "
- में एक चिकित्सक हूँ,तथागत बुद्ध !
- बुद्ध पारम्परिक नहीं है मौलिक है !
- विचार पराये होते है और दृष्टि अपनी !
- बुद्ध एक दृष्टा है,दार्शनिक नहीं !
तथागत गौतम बुद्ध दार्शनिक नहीं दृष्टा है ,दार्शनिक वह जो सोचे और द्रष्टा वह जो देखे। सोचने से दृष्टि नहीं मिलती ! सोचना ज्ञात का होता है, अज्ञात का सोचना हो भी नहीं सकता, जो ज्ञात नहीं है उसे हम सोचेंगे भी कैसे ,सोचना तो ज्ञात के भीतर ही परिभ्रमण है,सोचना तो ज्ञात की धूल में ही लोटाने जैसा है "सत्य अज्ञात है " ऐसे ही अज्ञात है जैसे अंधे को प्रकाश अज्ञात होता है अँधा लाख सोचे लाख सर मारे ,वो प्रकाश के सम्बंध में क्या जान पायेगा। आंख की चिकित्सा होनी चाहिए ,आंख खुलनी चाहिए। अँधा जब तक द्रष्टा न बने ,तब तक सार हाथ नहीं लगेगा !तो पहली बात बुद्ध के संबन्ध में स्मर्ण रखना उनका सारा जोर द्रष्टा बनने पर है ,वह स्वयं द्रष्टा है, और वह नहीं चाहते कि लोग दर्शन के उहापोह में उलझें, दार्शनिक उहापोह के कारण ही करोड़ों लोग दृष्टि को उपलब्ध नहीं हो पाते , प्रकाश की मुफ्त धारणा मिल जाये तो आंख का मेहंगा इलाज कौन करे !सस्ते में सिद्धांत मिल जाएं ,तो सत्य को कौन खोजे ,मुफ्त उधार सब उपलब्ध हो तो आंख की चिकित्सा की पीड़ा से कौन गुजरे ? चिकित्सा कठिन है ,और चिकित्सा में पीड़ा भी है।
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| परंपरा मनुष्य को अतीत के आडम्बरों और अंधविश्वास में जीने को मजबूर करती है |
- बुद्ध ने बार बार कहा है कि में एक चिकित्सक हूँ। उनके सूत्रों को समझने में इसे याद रखना कि बुद्ध किसी सिद्धांत का प्रतिपादन नहीं करते है, वे किसी दर्शन का सूत्रपात नहीं कर रहे, वे केवल उन लोगों को बुला रहे है जो अंधे है जिसके अंदर प्रकाश देखने की प्यास है ! और जो लोग बुद्ध के पास गए तो बुद्ध ने उनेह कुछ शब्द नहीं पकड़ाये, बुद्ध ने उन्हें धयान की तरफ़ इंगित और इसारा किया ! क्योंकि धयान से खुलती है आंख , ध्यान से खुलती है भीतर की आंख , विचारों को तो परत द परत तुम इखट्टी कर लो, अगर आंख खुली भी हो तो बंद हो जाएगी , विचारों के बोझ से मनुष्य की दृष्टि खो जाती है ! जितने विचारों के पक्षपात गहन होते जाते है , उतना ही देखना असंभव हो जाता है , फिर तुम वो ही देखने लगते हो जो विचारों के प्रभाव में तुम्हारी दृष्टि होती है ! फिर तुम वह नहीं देखते जो है , जो है उसे देखना हो तो सब दृष्टियों से मुक्त हो जाना जरुरी है !
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| परंपरा व्यक्ति को मानसिक गुलाम बनती है |
- इस विरोधाभास को समझना, "कि दृष्टि पाने के लिए सब दृष्टियों से मुक्त हो जाना जरुरी है" ! जिसकी कोई दृष्टि नहीं जिसका कोई दर्शन शास्त्र नहीं वो सत्य को देखने में समर्थ हो पता है
- दूसरी बात गौतम बुद्ध पारम्परिक नहीं है मौलिक है गौतम बुद्ध किसी परम्परा या किसी लीक को नहीं पीटते ,वह ऐसा नहीं कहते है कि अतीत के ऋषियों ने ऐसा कहा है इस लिए मान लो, वह ऐसा नहीं कहते है कि वेदों में ऐसा लिखा है इस लिए मान लो, वो ऐसा भी नहीं कहते कि में कहता हूँ इस लिए मान लो, वह कहते है जब तक तुम जान न लो मानना मत, उधार की श्रद्धा दो कौड़ी की होती है, विशवास मत करना खोजना, अपने जीवन को खोजने में लगाना, मानने में जरा भी शक्ति व्यय मत करना, अन्यथा मानने में ही फांसी लग जाएगी ! मान मान कर ही लोग भटक गए है !
- बुद्ध न तो परम्परा की दुहाई देते है, ना वेद की, ना वह कहते है हम जो कह रहें है वो ठीक होना ही चाहिए, वह इतना ही कहते है "कि ऐसा मेने देखा है " इसे मानने की जरुरत नहीं है ! इसको अगर परिकल्पना की तरह स्वीकार कर लो तो काफी है ! परिकल्पना का अर्थ होता है ,हाइपोथीसिस !
- जैसे की मेने तुम से कहा भीतर आओ भवन में दीपक जल रहा है, तो में तुमसे कह रहा हूँ कि मानने की जरुरत नहीं है कि भवन में दीपक जल रहा है ! इस पर विशवास करने की जरुरत नहीं है , इस पर किसी तरह की श्रद्धा लेन की जरुरत नहीं, बस तुम मेरे पास आओ और दीपक को जलता देख लो दीपक जल रहा है ! तुम मानो या न मानो दीपक जल रहा है अगर दीपक जल रहा है तो तुम मानते हुए आओ या न मानते हुए आओ दीपक जलता ही रहेगा ! तुम्हारे न मानने से दीपक बुझेगा नहीं और तुम्हारे मानने से दीपक जलेगा नहीं ! इसीलिए बुद्ध कहते है, कि सिर्फ तुम मेरा निमंत्रण स्वीकार करो ! इस भवन में दीपक जला है, तुम भीतर आओ यह भवन तुम्हरा ही है, यह तुम्हारी अंतरात्मा का भवन है, तुम भीतर आओ और दीपक को जलता देख लो, देख लो फिर मानना !
- ख्याल रहे जब देख ही लिया तो मानने की कोई जरुरत नहीं रह जाती, हम जो देख लेते है उसे थोड़े ही मानते है! हम तो जो नहीं देखते उसी को मानते है ! जैसे नदी और पहाड़ को तो नहीं मानते परमात्मा को मानते है ! हम सूरज, चाँद और तारों को तो नहीं मानते वो भी तो है! हम स्वर्ग और नर्ग को मानते है जो दिखाई नहीं पड़ता है उसीको हम मानते है ! और जो दिखाई पड़ता है उसको तो मानने की जरुरत ही नहीं रह जाती, उसका यथार्त तो प्रकट है !
- बुद्ध कहते है मेरी बात पर भरोसा लेन की जरूरत नहीं है, इतना ही काफी है कि तुम मेरा निमंत्रण स्वीकार कर लो, इतना ही पर्याप्त है इसी को वैज्ञानिक परिकल्पना कहते है !
- एक वैज्ञानिक कहता है कि 100 डिग्री तक पानी गर्म करने से पानी भांप बन जाता है, इसको मानने की कोई जरुरत नहीं है, चूल्हे पर पानी गर्म कर परिक्षण कर लो, परीक्षण करने के लिए जो बात मानी गयी है वो परिकल्पना है ! अभी स्वीकार नहीं कर लिया कि यह सत्य है। लेकिन एक आदमी कहता है, शायद सत्य हो शायद प्रयोग करके देखले ,प्रयोग ही सिद्द करेगा कि सत्य है या नहीं !
- तथागत गौतम बुद्ध परम्परावादी नही है मौलिक है !विचार की परम्परा होती है, दृष्टि की होती है मौलिकता , और विचार अतीत के होते है,वर्तमान में दृष्टि होती है, विचार पराये होते है और अपनी होती है दृष्टि !
- कपिल बर्मन
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